विडटर के अनुसार , " ऐसी भूमि में जहाँ वार्षिक वर्षा 20 इंच अथवा इससे कम हो , यहाँ बिना किसी सिंचाई के साधन के उपयोगी फसलों के आर्थिक उत्पादन को शुष्क खेती कहते हैं । " एक दूसरी अवधारणा के अनुसार , " उन क्षेत्रों में जहाँ वार्षिक वर्षा 25-30 इंच होती हो तथा वायु की गति अधिक होने के कारण वर्षा का वितरण असमान हो तो यहाँ सिंचाई से खेती करने को भी शुष्क खेती कहते हैं । " शुष्क खेती के क्षेत्रों में फसल उत्पादन के लिए भूमि में वर्षा के पानी को अधिक से अधिक मात्रा को सुरक्षित रखा जाता है । संक्षेप में कहा जा सकता है कि शुष्क खेती फसल उत्पादन की एक सुधरी प्रणाली है , जिससे किसी निश्चित भूमि पर पानी की अधिकतम मात्रा को सुरक्षित रखकर भरपूर उत्पादन किया जाता है ।
सफलतापूर्वक शुष्क खेती करने की आवश्यकताएँ
( 1 ) रबी की फसलों की कटाई के बाद खेत की जुताई ( Summer ploughing ) ऐसा करने से वर्षा ऋतु का पानी भूमि द्वारा आसानी से सोख लिया जाता है ।
( 2 ) प्रत्येक वर्षा के बाद खेत की जुताई करना , जिससे खरपतवार नष्ट हो सके और भूमि को भौतिक दशा में सुधार हो सके ।
( 3 ) भूमि में अधिकाधिक मात्रा में जीवांश खादों का प्रयोग किया जाए , जिससे भूमि की जल - धारण क्षमता में वृद्धि हो सके ।
( 4 ) ऐसी प्रजातियों के बीजों का प्रयोग किया जाए जो शुष्क क्षेत्रों में आसानी से पैदा किए
( 5 ) बीज की मात्रा कम और बुवाई लाइनों में दूर - दूर तथा गहराई में करनी चाहिए ।
( 6 ) मिश्रित फसलें जैसे - ज्वार , अरहर या चाजरा - अरहर बोनी चाहिए ।
( 7 ) खेतो की मेडबन्दी करनी चाहिए , जिससे वर्षा का अधिक से अधिक पानी खेत में रोका जा सका
( 8 ) डलवां जमीनों पर जुताई , मुहाई इत्यादि की क्रियाएँ डाल के विपरीत ही करनी
( 9 ) बड़ी फसलों में उचित समय पर निराई गुड़ाई की क्रियाएँ करनी चाहिए ।
( 10 ) यन्त्रों का प्रयोग किया जाना चाहिए जो भूमि की ऊपरी सतह को तोड़ सके और वर्षा के तुरन्त बाद ही खेत में कार्य कर सकें । शुष्क खेती प्राकृतिक कारणों से विवश होकर करनी पड़ती है । इसमें किसी प्रकार की छाँट या चुनाव अथवा यह किसी अन्य प्रकार की खेती का विकल्प नहीं है । अतः इसके तुलनात्मक लाभ अथवा दोष का प्रश्न ही नहीं उठता है ।
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