गेहूँ की खेती से जुड़े महत्वपूर्ण एवं रोचक तथ्य
गेहूँ ( Wheat )वानस्पतिक नामः ट्रिटिकम अस्टीवम
( Triticum aestivum )
👉 ट्रिटिकम अस्टीवम तथा ट्रिटिकम ड्यूरम प्रजाति के गेहूँ को बसन्त गेहूँ ( Spring wheat ) भी कहा जाता है , इसकी खेती प्रमुख रूप से उपोष्ण
( Sub tropical ) तथा शीतोष्ण ( Temperate ) जलवायु क्षेत्रों की जाती है ।
👉 T. dicoccum तथा T. sphaerococcum प्रकार के गेहूँ की खेती शीतोष्ण देशों में की जाती है , जहाँ इसे शीत गेहूँ ( Winter wheat ) के नाम से जाना जाता है ।
👉 भारतवर्ष में गेहूँ की ट्रिटिकम अस्टीवम प्रजाति सर्वाधिक क्षेत्र , लगभग सम्पूर्ण गेहूँ क्षेत्रफल का 90 % भाग , पर उगाई जाती है ।
👉 ट्रिटिकम अस्टीवम प्रजाति को मैक्सीकन बौनी गेहूँ भी कहा जाता है । यह प्रजाति भारत में Dr. N. E. Borlaug द्वारा लाई गयी थी ।
👉 गेहूँ की ' शर्वती सोनोरा ' प्रजाति सन् 1965 में तथा कल्यान सोना ' सन् 1970 में भारत में आयीं । ये दोनों प्रजातियाँ ट्रिटिकम अस्टीवम प्रकार की हैं।
👉 विश्व के कुल गेहूँ उत्पादन का लगभग 10 % भाग ट्रिटिकम ड्यूरम प्रकार की प्रजाति द्वारा उत्पन्न किया जाता है ।
👉 भारतवर्ष में कुल गहू उत्पादन का लगभग 3-4 % भाग ट्रिटिकम ड्यूरम प्रजाति द्वारा उत्पन्न किया
जाता है ।
👉 ट्रिटिकम ड्यूरम प्रकार के गेहूँ की खेती शुष्क तथा गर्म जलवायु में की जाती है । मध्य प्रदेश , गुजरात , महाराष्ट्र , कर्नाटक तथा दक्षिणी राजस्थान में प्रमुख रूप से इसकी खेती की जाती है ।
👉 ड्यूरम गेहूँ का प्रयोग सेमोलिना ( Semolina ) , मकरॉनी ( Macaroni ) , नूडिल्स ( Noodles ) तथा स्नेक ( Snack ) आदि व्यंजनों को तैयार करने में किया जाता है ।
👉 ट्रिटिकम अस्टीवम हैक्साप्लाइड किस्म है जिसकी गुणसूत्र संख्या 21 जोड़े ( 42 गुणसूत्र ) है ।
👉 Triticum durum एवं T. dicoccum ट्रेटाप्लाइड किस्में हैं जिनकी गुणसूत्र संख्या 14 जोड़े
( 28 गुणसूत्र ) है ।
👉 डी ० कैन्डोल ( 1884 ) के अनुसार गेहूँ का उत्पत्ति स्थान दजला फरात की घाटी है ।
👉 वेवीलोव 1926 ) के अनुसार कड़े गेहूँ का जन्म स्थान अबीसीनिया तथा भूमध्य सागर के क्षेत्र तथा कोमल गेहूँ का जन्म स्थान भारत तथा अफगानिस्तान है
👉 पिसिया गेहूँ ( T. aestivum ) का जन्म ईसा से चौथी शताब्दी से पूर्व माना जाता है ।
👉 उत्तर प्रदेश , हमारे देश का सर्वाधिक क्षेत्रफल में गेहूँ उत्पन्न करने वाला राज्य है ।
👉 क्षेत्रफल की दृष्टि से धान के बाद गेहूँ का द्वितीय
स्थान है ।
👉 गेहूँ में बिटामिन बी1 ,, बी2 , बी6 व विटामिन ई पाये जाते हैं । वसा में घुलनशील इन विटामिनों का पिसाई के समय ह्रास हो जाता है ।
👉 गेहूँ में सैल्युलोज ( Cellulose ) अधिकाँशत : दाने के छिलके पर ही मिलता है ।
👉 UP 262 किस्म , पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय से विकसित हुई है ।
👉 WL 711 व WL 410 प्रजातियाँ पंजाब कृषि विश्वविद्यालय ( PAU ) , लुधियाना से निकाली गई हैं ।
👉 WG 357 व WG 377 किस्में भी पंजाब कृषि विश्वविद्यालय , लुधियाना द्वारा विकसित हुई हैं ।
👉 WH 147 व WH 157 किस्में , कृषि विश्वविद्यालय , हिसार से निकाली गई हैं ।
👉 K65 व K68 किस्में , उ ० प्र ० कृषि संस्थान ( अब चन्द्रशेखर आजाद कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय ) , कानपुर द्वारा विकसित की गयी हैं ।
👉 HI 7483 ( मेघदूत ) किस्म , इन्दौर केन्द्र द्वारा विकसित की गयी है ।
👉 मेघदूत , ड्यूरम प्रकार के गेहूँ की एक उत्तम किस्म C 306 ' विशेषतौर पर ' चपाती ' के लिए एक उत्तम किस्म है ।
👉 VL 401 व VL 404 किस्में विवेकानन्द पर्वतीय कृषि अनुसंधानशाला , अल्मोड़ा द्वारा विकसित की गई हैं ।
👉 नर्वदा 4 व नर्वदा 112 किस्में , मध्य प्रदेश में शुष्क खेती के लिए उपयुक्त हैं ।
👉 राज 911 , ड्यूरम ( कठोर ) गेहूँ की बौनी किस्म है , जो दुर्गापुर ( जयपुर ) गेहूँ अनुसंधान केन्द्र
( राजस्थान ) द्वारा विकसित की गई है ।
👉 शैलजा ( HS 1138-6-4 ) किस्म , IARI के शिमला केन्द्र द्वारा विकसित की गई है । यह किस्म गेरुई रोगों के लिए अत्यधिक प्रतिरोधी है ।
👉 गिरिजा किस्म , IARI के शिमला केन्द्र द्वारा विकसित की गई है । यह पर्वतीय क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है ।
👉 HUW 37 ( मालवीय 37 ) किस्म , बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय ( BHU ) द्वारा विकसित की गई है ।
👉 शेरा ( HD 1925 ) किस्म , IARI , नई दिल्ली द्वारा विकसित की गई है ।
👉 UP 301 , CPAN 2016 , CPAN 2019 तथा IC 8354 गेहूँ की अधिक प्रोटीन युक्त किस्में हैं ।
👉 C 306 , HI 1136 एवं सुजाता अत्यधिक सूखा सहन करने वाली गेहूँ की प्रजातियाँ हैं ।
👉 UP 368 तीन जीन बौनी किस्म डबल रोटी के लिए सर्वोत्तम है ।
👉 ऊसर भूमि के लिए ' K 7410 ' किस्म चन्द्रशेखर आजाद कृषि विश्वविद्यालय , कानपुर द्वारा विकसित की गई है ।
👉 करनाल बन्ट लगने वाले स्थानों पर HD 2009
( अर्जुन ) तथा WL 711 किस्में नहीं बोनी चाहिए ।
👉 रतुआ ( Rust ) प्रतिरोधी किस्में हैं : K9107 , HP 1731 तथा राज 3765
👉 K8027 ( मगहर ) तथा K - 9465 ( गोमती ) उत्तर प्रदेश में गेहूँ की असिंचित दशा में बुआई के लिए उपयुक्त किस्में हैं ।
👉 K9003 ( उजियार ) , HP 1731 ( राजलक्ष्मी ) तथा K9107 ( देवा ) उत्तर प्रदेश में सिंचित ( समय से ) बुआई के लिए उपयुक्त किस्में हैं ।
👉 K7903 ( हलना ) , K 9162 ( गंगोत्री ) , K8020 ( त्रिवेणी ) तथा HP 1533 ( सोलानी ) उत्तर प्रदेश में सिंचित ( विलम्ब से ) बुआई के लिए अनुकूल प्रजातियाँ
हैं।
👉 गेहूँ की ड्यूरम प्रकार की प्रजातियाँ हैं : PDW - 215 , PDW - 233 , PBW - 34 , WH - 8381 , HI - 8381 , Raj - 1555
👉 गेहूँ की ' श्रेष्ठ ' ( HD - 2687 ) किस्म का विकास सन् 1999 में उत्तरी पश्चिमी मैदानी क्षेत्र में समय से एवं सिंचित दशा में बुआई के लिए किया गया है ।
👉 गेहूँ की ' श्रेष्ठ ' किस्म लोजिंग रोधक तथा भूरी एवं पीली गेरुई रोग के प्रति सहनशील है ।
👉 गेहूँ की ' श्रेष्ठ ' किस्म ' CPAN - 2009 ' X ' HD - 2329 ' के संकरण से विकसित की गई है ।
👉 लवणीय मृदा में गेहूँ की खेती के लिए बीजदर 10-15 % अधिक रखनी चाहिए ।
👉 लवणीय मृदा में नाइट्रोजन की मात्रा 20 % अधिक देनी चाहिए । कुल नत्रजन का 1/3 N बुआई पर 1/3 N कल्ले फूटते समय तथा शेष 1/3 N दाना बनते समय देना चाहिए ।
👉 लवणीय मृदा में गेहूँ की खेती के लिए ढैचा की हरी खाद , कार्बनिक खादें व कम्पोस्ट का प्रयोग अधिक करना चाहिए ।
👉 लवणीय मृदा में धान - गेहूँ का फसल चक्र अपनाना चाहिए ।
👉 लवणीय मृदा में ' के ० 7410 ' व ' सोनालिका ' किस्में उगायें ।
👉 धान के बाद गेहूँ की फसल उगाने पर पहली सिंचाई 28-35 दिन पर करनी चाहिए ।
👉 गेहूँ के साथ आलू , गन्ना व राई की सहफसली खेती की जा सकती है ।
👉 गन्ने के साथ गेहूँ बोने के लिए , गन्ना अक्टूबर में बोते हैं । गन्ने की दो पंक्तियों ( 90 से ० मी ० दूरी ) के मध्य 2-3 पँक्तियाँ गेहूँ की बोना चाहिए ।
👉 गेहूँ व राई की सहफसली खेती को उगाने के लिए गेहूँ व राई का अनुपात 9 : 1 रखते हैं ।
👉 गन्ने के साथ गेहूँ की सहफसली खेती के लिए यू ० पी ० 319 ' तथा ' के ० 816 ' किस्में उपयुक्त हैं ।
👉 गेहूँ के सींकुर ( Awn ) में प्रकाश संश्लेषण की क्रिया होती है ।
👉 धान - गेहूँ फसल चक्र में गेहूँ का मुख्य खरपतवार गेहूँसा Phalaris minor ) अधिक पनपता है ।
👉 गेहूँसा ( Phalaris minor ) की रोकथाम के लिये सल्फोसल्फ्यूरान नामक शाकनाशी की 25 ग्राम
( सक्रिय तत्व ) मात्रा प्रति हेक्टेयर प्रयोग करते हैं ।
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