कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग निम्न दो प्रकार से होती है-
(1) ठेकेदारी खेती- गाँव/खेत से दूर शहर में रहने वाले नौकरीपेशा या व्यापारी व्यक्ति ,जिन्हें अनुपस्थित जमींदार कहते हैं ,अथवा गाँव में ही निवास करने वाले वे भू - स्वामी , जिनके पास श्रम व अन्य संसाधनों का अभाव है , उत्तराधिकार में प्राप्त अपने हिस्से की जमीन अथवा खरीदी हुई जमीन को किसी दूसरे व्यक्ति/किसान को फसल साझेदारी अथवा प्रति एकड़ भूमि प्रतिवर्ष की दर से कृषि करने के लिए ठेके पर दे देते हैं । इस प्रथा में जमीन को जोतने - बोने वाला व्यक्ति अपने परिवार एवं संसाधनों की सहायता से खेती करता है तथा जमीन के मालिक को ठेके की शर्तों के अनुसार फसल साझे का निश्चित भाग अथवा एकमुश्त धनराशि प्रतिवर्ष देत हैैंं।
( 2) अनुबन्धित खेती - इस व्यवस्था में खाद्य प्रसंस्करण उद्योग अथवा कृषि बाजार में स्थापित बहुराष्ट्रीय कम्पनियां अपने उद्योग / व्यवसाय से सम्बन्धित कच्चे माल की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए किसानों से अनुबन्ध कर लेते हैं । इस व्यवस्था में खेती किसान स्वयं करते हैं , लेकिन निश्चित शर्तों के अनुसार फार्म की उत्पादन योजना , तकनीकी एवं वस्तु की गुणवत्ता का कार्य प्रसंस्करण इकाइयों अथवा कम्पनी की देख - रेख में किया जाता है और किसानों को उत्पादित फसल/वस्तु के मूल्य का भुगतान पूर्वनिश्चित कीमत के आधार पर कर दिया जाता है । कभी - कभी ये कम्पनियाँ अथवा प्रसंस्करण इकाइयाँ निश्चित समयावधि के लिए किसानों से भूमि कान्ट्रेक्ट पर ले लेती हैं और उत्पादन , प्रसंस्करण एवं विपणन आदि के सभी कार्य स्वयं करती हैं। किसानों को निश्चित शर्तों के अनुसार निश्चित धनराशि दे दी जाती है । कृषि के वैश्वीकरण एवं उदारीकरण से इस प्रकार की खेती का रुझान बढ़ा है , जिस कारण भारत में अनेक बड़ी - बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ खेती में विभिन्न प्रकार से प्रवेश कर रही है । भारत सरकार भी इस तरह की खेती को बढ़ावा देना चाहती है ।
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