" सहकारी खेती का मतलब उस संगठन से है,जिसमें किसान परस्पर लाभ के उद्देश्य से स्वेच्छापूर्वक अपनी भूमि ,श्रम और पूँजी को एकत्र करके सामूहिक रूप से खेती करते हैं।''
सहकारी खेती निम्नलिखित प्रकार की होती है-
●सहकारी उन्नत कृषि -
जब केवल कुछ विशिष्ट उद्देश्यों अथवा कार्यों को चलाने के लिए किसान आपस में मिलकर एक समिति बनाते है तो इसे सहकारी उन्नत कृषि कहते है । समिति की ओर से खेती के लिए एक योजना तैयार की जाती है , जिसका सभी सदस्य अनुसरण करते है । समिति की ओर से बीज , खाद , उर्वरक , सिंचाई , जुताई , बुआई , फसल की देख - रेख, मशीनों का प्रबन्ध तथा उत्पादन की बिक्री आदि का प्रबन्ध किया जाता है । प्रत्येक सदस्य को प्राप्त सुविधाओं का खर्च देना पड़ता है और वर्ष के अन्त में सदस्य को कुल लाभ का एक भाग लाभांश के रूप में दिया जाता है । सदस्यों की भूमि अलग - अलग रहती है तथा प्रत्येक सदस्य अपनी भूमि पर व्यक्तिगत रूप से खेती करता है।
●सहकारी काश्तकारी खेती -
इस प्रकार की खेती में सहकारी समिति भूमि को पट्टे या लगान पर लेकर सदस्यों को छोटी - छोटी जोत के रूप में खेती करने के लिए लगान पर उठा देती है । कृषि का पूरा कार्यक्रम समिति ही बनाती है तथा अन्य सुविधाएँ जैसे ऋण , बीज , खाद , उर्वरक , मशीन आदि तथा सदस्यों की पैदावार की बिक्री का प्रबंध भी समिति ही करती है।
●सहकारी सामूहिक खेती -
इस प्रकार की खेती में भी सहकारी समिति भूमि की स्वामी होती है तथा खेती सामूहिक रूप से की जाती है । सामूहिक सहकारी कृषि एक श्रम धनीभूत संस्था है । इसमें सदस्यों का भू - स्वामी होना आवश्यक नहीं है और न ही उनकी भूमि एकत्र करना । ये समितियाँ भूमि अधिपति अथवा भूमिहीन कृषको की संस्था है , जो पट्टे पर भूमि प्राप्त करती है अथवा इसे खरीदती है । तथापि समिति के लिए सदस्य की ही भूमि पट्टे पर लेने अथवा खरीदने पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है । इस प्रकार व्यवस्थित भूमि पर सदस्य कार्य करते है एवम् मजदूरी प्राप्त करते है । समिति की शुद्ध आय , आरक्षित कोष एवम् निधियों का प्रावधान कर लेने के अनन्तर सदस्यों में विभक्त कर दी जाती है । समिति हिस्से की पूंजी , निक्षेप , ऋण एवम् अनुदान से निधियाँ एकत्र करती है । ऐसी समिति संयुक्त कृषि समिति से कुछ अर्थों में भिन्न होती है । इन समितियों में कोई स्वामित्व लाभाँश नहीं होता , दूसरे संयुक्त कृषि सहकारी समिति में सदस्यों के लिए खेतों में काम करना आवश्यक नहीं है जबकि सामूहिक कृषि सहकारी समिति में ऐसा करना आवश्यक है।
●सहकारी संयुक्त खेती -
सहकारी संयुक्त खेती का अभिप्राय उस संगठन से है जिसमें किसान परस्पर लाभ के उद्देश्य से स्वेच्छापूर्वक अपनी भूमि , श्रम और पूंजी को एकत्र करके सामूहिक रूप से खेती करते हैं । " सहकारी संयुक्त कृषि , कृषि के क्षेत्र में सहकारिता का अधिक संगठित रूप है , क्योंकि वे अपनी क्रियाओं में अधिक व्यापक और सर्वांगीण है । भूमि के बिखरे टुकड़ों वाले छोटे कृषक जो आर्थिक रूप में अपने छोटे खेत जोत नहीं सकते , ऐसी समिति का गठन करते हैं । वे अपनी भूमि को एक कर लेते है और अपने कृषि उत्पादन , रोजगार एवम् आय बढ़ाने की दृष्टि से संयुक्त रूप से कृषि करने के लिए सहमत होते हैं ।
सहकारी खेती के लाभ
( 1 ) जोत की इकाई में वृद्धि -
सहकारी खेती में छोटी - छोटी जोत के किसान अपनी भूमि को एकत्रित करके खेती का कार्य करते हैं । खेती की इकाई के आकार में वृद्धि होती है।
( 2 ) भूमि का उचित उपयोग किया जा सकता है -
जोत का आकार बड़ा हो जाने के कारण भूमि पर स्थायी सुधार जैसे सिंचाई की सुविधाएँ इत्यादि आसानी से उपलब्ध की जा सकती है और कृषि में वैज्ञानिक रीतियों का भी प्रयोग किया जा सकता है।
( 3 ) अच्छे यन्त्र और मशीनों का प्रयोग किया जा सकता है -
सहकारी खेती के अन्तर्गत अच्छे व उन्नतशील यन्त्र व मशीनों को आसानी से उपलब्ध किया जा सकता है । एक व्यक्तिगत किसान , जिसकी आय सीमित व अनिश्चित है , अच्छे यन्त्रों मशीनों के प्रयोग से सदैव ही वंचित रहता है ।
( 4 ) पैदावार में वृद्धि होती है -
व्यक्तिगत जोत की अपेक्षा सहकारी फार्म पर खेती करने की सभी सुविधाएँ जैसे सिंचाई , अच्छे यन्त्र , रासायनिक खाद , अच्छे बीज व सरकार की ओर से दी गई सहायताएं आसानी से , उचित समय पर व उचित मात्रा में उपलब्ध होती है , जो निश्चित ही कृषि उपज बढ़ाने में सहायक होती है ।
( 5 ) आय में वृद्धि-
मशीनों द्वारा खेती करने और सिंचाई की सुविधाएँ उपलब्ध होने के कारण गहन खेती सम्भव होती है , जोकि प्रति इकाई आय बढ़ाने में सहायक होती है ।
( 6 ) फसलों का कीड़ों व बीमारियों से बचाव -
सहकारी फार्म पर फसलों को कीड़ों व बीमारियों से बचाने के लिए वैज्ञानिक तरीके व सरकार द्वारा प्रदान की हुई पादप संरक्षण सेवाओं ( Plant Protection Services ) का उपयोग भली प्रकार किया जा सकता है । जबकि एक व्यक्तिगत किसान के लिये ये सेवाएँ उपलब्ध करना असम्भव सा ही होता है । ऐसा करने से उपज में वृद्धि होती है , साथ ही आय में भी वृद्धि होती है ।
( 7 ) जोत की प्रति इकाई खर्च में कमी -
सहकारी फार्म का क्षेत्रफल बडा होने के कारण उत्पादन के लिए विभिन्न संसाधनों का अधिकतम उपयोग होता है , जिसमें जोत का प्रति इकाई खर्च कम हो जाता है ।
( 8 ) उपज को बेचने में आसानी -
कृषि उपज की मात्रा अधिक व सारी उपज एक से गुणों की होने के कारण उसके विक्रय में आसानी होती है तथा अच्छे भावों पर उपज बिक जाती है । कृषि उपज के भाव प्रतिकूल होने के समय उपज को बिना किसी कठिनाई के रोकना सम्भव है , जो व्यक्तिगत किसान के लिए सम्भव नहीं है।
( 9 ) पूंजीकरण ( Capital Formation ) -
एकत्रित रूप से व अधिक मात्रा में उत्पादन होने के कारण पूंजीकरण आसानी से हो जाता है , जो फार्म के विकास कार्यों में जिनके द्वारा कृषि उत्पादन बढ़ाया जा सकता है , सहायक सिद्ध होता है ।
( 10 ) श्रमिकों का उचित उपयोग -
(11) सदस्यों को ऋण लेने में आसानी-
प्रायः देखा गया है कि छोटे-छोटे किसानों को ऋण लेने में अधिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है । ब्याज की ऊंची दर पर रुपया मिल पाता है । किन्तु सहकारी खेती के सदस्यों को सहकारी समिति द्वारा कम ब्याज पर ऋण आसानी से मिल जाता है ।
( 12 ) कृषि उपज का विधायन ( Processing ) सम्भव होता है -
- कृषि वस्तुओ के उपभोग के लिए कई प्रकार का विधायन आवश्यक होता है , जैसे धान से चावल बनाना , कपास से रूई और बिनौला अलग करना , तिलहन से तेल और खली का बनाना , इत्यादि। विधायन का कार्य मशीनों द्वारा सहकारी कृषि फार्म पर भली प्रकार सम्पन्न किया जा सकता है , क्योकि उपज अधिक मात्रा में उपलब्ध रहती है । ऐसा करने से प्रशोधित वस्तु से अधिक लाभ प्राप्त हो जाता है।
( 13 ) सहायक धन्धों का विकास सम्भव होता है --
फार्म पर अनेक प्रकार के सहायक धंधे शुरु किए जा सकते है , जैसे मुर्गीपालन , फलों , तरकारियों का परिरक्षण एवं डिब्बाबंदी इत्यादि । साथ ही साथ छोटे - छोटे उद्योग भी शुरू किए जा सकते हैं , जो फार्म की उपज और उपलब्ध सुविधाओं द्वारा आसानी से चला सकते हैं । ऐसा करने से सदस्यों को लगातार कार्य मिलता रहता है तथा सदस्यों की आर्थिक दशा में उन्नति होती है ।
( 14 ) कृषकों का शोषण से बचाव -
प्रत्येक व्यक्ति को पूर्ण स्वतंत्रता होने के कारण प्रत्येक व्यक्ति अपनी योग्यतानुसार कार्य करता है और शोषण से बच जाता है। कृषक को सामाजिक व सांस्कृतिक कार्य करने के लिए भी अधिक समय मिल जाता है ।
(15 ) अनुसंधान व नवीन पद्धति की खोज -
सहकारी फार्म पर , जो क्षेत्रफल में बड़े होते है , खेतो की उन्नति के लिए खोज करना या नई पद्धति का निकालना सम्भव होता है । क्योकि एक व्यक्तिगत किसान के पास न तो इतने संसाधन है और न समय ही कि वह खोज कर सके । साथ ही साथ एक किसान की इस ओर रुचि भी नहीं होती और उत्साह भी नहीं होता है ।
( 16 ) सामाजिक व राजनैतिक लाभ -
इससे सहकारिता की भावना को बल मिलता है जो लोगों के बीच मिलजुल कर रहने और काम करने की इच्छा को मजबूत बनाती है । राजनैतिक दृष्टि से देखा जाए जो सहकारिता की भावना किसी भी लोकतन्त्र की सफलता का आधार है।
भारत में सहकारी खेती की हानियाँ
भारत में सहकारी कृषि के पक्ष में कुछ लोग पाए जाते हैं तो कुछ व्यक्ति इसका विरोध करते हैं । श्री चौधरी चरण सिंह ने अपनी पुस्तक " India's Poverty and its Solution " मे सहकारी कृषि के विपक्ष में अनेक तर्क रखे हैं । स्वतन्त्र पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष स्वर्गीय राजाजी ने भी अपना मत व्यक्त किया था कि “ सहकारी खेती बल प्रयोग के बिना सम्भव नहीं होगी । लोग खुशी से मजदूर बनने को तैयार नहीं होंगे और किसान तो और भी कम । हमारे देश में सहकारी खेती भयंकर रूप से विफल होगी । " सहकारी कृषि के विपक्ष में निम्न तर्क प्रस्तुत किए जाते है , जिनको सहकारी कृषि के दोष या हानियों में भी रखा जा सकता है -
( 1 ) बेरोजगारी में वृद्धि -
सहकारी कृषि में खेत बड़े - बड़े हो जाते है , जिससे उन खेतों में आधुनिक मशीनों का उपयोग किया जाता है । जिसके परिणामस्वरूप प्रति एकड़ कम श्रमिकों की आवश्यकता होती है । देश में वैसे ही बेरोजगारी की समस्या है , सहकारी कृषि उसमें वृद्धि करती है ।।
( 2 ) व्यक्तिगत उत्साह में कमी -
इसका प्रभाव यह होता है कि कुशल व्यक्ति भी उतना ही कार्य करने की चेष्टा करने लगता है जितना अकुशल । इस प्रकार उत्साह में कमी हो जाती है इसके परिणामस्वरूप उत्पादन में कमी आ जाती है ।
( 3 ) भूमि से लगाव -
भारतीय कृषि का अपनी पैतृक भूमि से इतना लगाव है कि वह उसको किसी भी दशा में छोड़ने को तैयाी नहींहै।
( 4 ) शिथिल व्यवस्था -
सहकारी कृषि के लिए ईमानदार , निष्ठावान एवं उत्साही व्यक्तियों की आवश्यकता है । इस प्रकार के व्यक्तियों का प्रायः अभाव रहता है । इससे सहकारी समिति की व्यवस्था शिथिल हो जाती है।
( 5 ) सहकारी भावना का अभाव -
भारतीय कृषकों में आपसी द्वेष , वैमनस्य , स्वार्थ व मुकदमेबाजी पायी जाती है , जिससे सहकारिता की भावना का विकास नहीं हो पाता है । अतः सहकारी कृषि भी यहाँ सफल नहीं हो सकती है ।
( 6 ) अन्य देशों में सहकारी कृषि की असफलता -
आलोचको का एक महत्त्वपूर्ण तर्क यह है कि विश्व में जहाँ कहीं भी सहकारी कृषि ऐच्छिक आधार पर संगठित की गयी है वहाँ यह असफल सिद्ध हुई है ।
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